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ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-यार क़हरी है | शाही शायरी
zulf-e-mushkin-e-yar qahri hai

ग़ज़ल

ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-यार क़हरी है

सिराज औरंगाबादी

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ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-यार क़हरी है
क्या क़यामत का नाग ज़हरी है

धूप सीं ग़म की ताज़गी है उसे
दिल नहीं है गुल-ए-दो-पहरी है

ज़ाकिर-ए-ग़म कूँ दिल के हल्क़े में
नाला-ओ-आह ज़िक्र-ए-जहरी है

दामन-ए-यार नहीं कनारी-दार
सफ़्हा-ए-जदवल-ए-सुनहरी है

वहशी-ए-दश्त-ए-बे-ख़ुदी है 'सिराज'
गरचे आलम के निज़्द शहरी है