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ज़ुहूर-ए-पैकरी सहरा में है सिर्फ़ इक निशाँ मेरा | शाही शायरी
zuhur-e-paikri sahra mein hai sirf ek nishan mera

ग़ज़ल

ज़ुहूर-ए-पैकरी सहरा में है सिर्फ़ इक निशाँ मेरा

इज्तिबा रिज़वी

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ज़ुहूर-ए-पैकरी सहरा में है सिर्फ़ इक निशाँ मेरा
ग़ुबार-ए-कारवाँ हूँ दूर निकला कारवाँ मेरा

रसाई मर्ग-ए-शौक़-उफ़्तादगी नंग-ए-तन-आसानी
बला की कशमकश है और ग़ुबार-ए-ना-तावाँ मेरा

मुझे घबरा के दोश-ए-हस्ती-ए-जावेद पर फेंका
कोई दम भी न उट्ठा मौत से बार-ए-गिराँ मेरा

मिरे साज़-ए-नफ़स की ख़ामुशी पर रूह कहती है
न आई मुझ को नींद और सो गया अफ़्साना-ख़्वाँ मेरा

ख़राबी ख़ंदा-ज़न है कोशिश-ए-तामीर पर मेरी
क़फ़स को तोड़ता जाता है शौक़-ए-आशियाँ मेरा