ज़ोरों पे बहुत अब मिरी आशुफ़्ता-सरी है
ये हाल है ख़ुद से भी मुझे बे-ख़बरी है
जब से नहीं आग़ोश में वो जान-ए-तमन्ना
इक सिल है कि हर वक़्त कलेजे पे धरी है
उन की जो मयस्सर नहीं शादाब-निगाही
फूलों में कोई रंग न सब्ज़े में तरी है
माना कि मोहब्बत के हैं दुश्वार तक़ाज़े
बे-यार के जीना भी तो इक दर्द-सरी है
लपका है ये इक उम्र का जाएगा न हरगिज़
इस गुल से तबीअत न भरेगी न भरी है
इक उन की हक़ीक़त तो मिरे दिल को है तस्लीम
बाक़ी है जो कौनैन में वो सब नज़री है
आँखों में समाता नहीं अब और जो कोई
क्या जाने बसीरत है कि ये बे-बसरी है
जागोगे शब-ए-ग़म में 'जलील' और कहाँ तक
सोते नहीं क्यूँ? नींद तो आँखों में भरी है

ग़ज़ल
ज़ोरों पे बहुत अब मिरी आशुफ़्ता-सरी है
जलील क़िदवई