EN اردو
ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है | शाही शायरी
zindagi zauq-e-parastish ki saza mange hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है

शमशाद सहर

;

ज़िंदगी ज़ौक़-ए-परस्तिश की सज़ा माँगे है
काँच के का'बे में पत्थर का ख़ुदा माँगे है

आज फिर अपने पयम्बर की पनाहों के लिए
अहद-ए-आशोब कोई ग़ार-ए-हिरा माँगे है

ज़िंदगी आज है इंसान की तो मिस्ल-ए-क़फ़स
उम्र-ए-पैहम के लिए अपनी चिता माँगे है

हुस्न-कारी के लिए आज ये दिलदार-ए-सुख़न
रंग-ए-ख़ूँ और ज़रा बू-ए-हिना माँगे है

मिन्नत-ए-गोश नहीं क़ाफ़िला-ए-वक़्त-ए-'सहर'
लम्हा लम्हा वो मगर बाँग-ए-दरा माँगे है