ज़िंदगी यूँ तो बहुत अय्यार थी चालाक थी
मौत ने छू कर जो देखा एक मुट्ठी ख़ाक थी
जागती आँखों के सपने दिल-नशीं तो थे मगर
मेरे हर इक ख़्वाब की ता'बीर हैबतनाक थी
आज काँटे भी छुपाए हैं लिबादों में बदन
इक ज़माने में तो फ़स्ल-ए-गुल भी दामन चाक थी
था हमें भी हर क़दम पे नाक कट जाने का डर
उन दिनों की बात है जब अपने मुँह पर नाक थी
था लड़कपन का ज़माना सरफ़रोशी से भरा
हम उसी तलवार पर मरते थे जो सफ़्फ़ाक थी
दोस्तों के दरमियाँ सच बोलते डरता है वो
दुश्मनों की भीड़ में जिस की ज़बाँ बे-बाक थी
ग़ज़ल
ज़िंदगी यूँ तो बहुत अय्यार थी चालाक थी
शकील शम्सी