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ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है | शाही शायरी
zindagi wadi o sahra ka safar hai kyun hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है

इब्राहीम अश्क

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ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है
इतनी वीरान मिरी राह-गुज़र है क्यूँ है

तू उजाले की तरह आ के लिपट जा मुझ से
इक अंधेरा सा इधर और उधर है क्यूँ है

रोज़ मिलता है कोई दिल को लुभाने वाला
फिर भी तू ही मिरा महबूब-ए-नज़र है क्यूँ है

घर की तस्वीर भी सहरा की तरह है लेकिन
फ़र्क़ इतना है कि दीवार है दर है क्यूँ है

जिस को देखूँ वही बरबाद हुआ जाता है
आदमी क्या है मोहब्बत का खंडर है क्यूँ है

मैं समुंदर हूँ मगर प्यास है क़िस्मत मेरी
मेरे दामन में अगर 'अश्क' गुहर है क्यूँ है