ज़िंदगी थी ये तमाशा तो नहीं था पहले
आदमी इतना भी तन्हा तो नहीं था पहले
हर तरफ़ शम-ए-मोहब्बत के उजाले थे यहाँ
सूरतें थीं ये अँधेरा तो नहीं था पहले
दाव पर जज़्बा-ए-उल्फ़त को लगा देते थे लोग
फिर भी दिल इतना शिकस्ता तो नहीं था पहले
देख लेते थे इसी रूह के अंदर ख़ुद को
आईना हम पे अधूरा तो नहीं था पहले
कभी जल जाते थे राहों में लहू के भी चराग़
रौशनी पर कोई पहरा तो नहीं था पहले

ग़ज़ल
ज़िंदगी थी ये तमाशा तो नहीं था पहले
राशिद तराज़