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ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं | शाही शायरी
zindagi shab ke jaziron se udhar DhunDte hain

ग़ज़ल

ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं

शहबाज़ ख़्वाजा

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ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
आँख में अश्क जो चमकें तो सहर ढूँडते हैं

ख़ाक की तह से उधर कोई कहाँ मिलता है
हम को मालूम है ये बात मगर ढूँडते हैं

कार-ए-दुनिया से उलझती हैं जो साँसें अपनी
ज़ख़्म गिनते हैं कभी मिस्रा-ए-तर ढूँडते हैं

बे-हुनर होना भी है मौत की सूरत ऐ दोस्त
ज़िंदा रहने के लिए कोई हुनर ढूँडते हैं

दस्तकें कब से हथेली में छुपी हैं 'शहबाज़'
शहर-ए-असरार की दीवार में दर ढूँडते हैं