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ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया | शाही शायरी
zindagi ne fasl-e-gul ko bhi pasheman kar diya

ग़ज़ल

ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया

परवेज़ शाहिदी

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ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया
जिस बयाबाँ पर नज़र डाली गुलिस्ताँ कर दिया

तू ने ये क्या ऐ सुकूत-ए-शिकवा-सामाँ कर दिया
दिल की दिल ही में रही उन को पशेमाँ कर दिया

शुक्रिया ऐ मौसम-ए-गुल पास-ए-वहशत है यही
गुल्सिताँ को तू ने हम-दीवार-ए-ज़िंदाँ कर दिया

कितने अफ़्साने बना कर रख लिए थे शौक़ ने
यूँ नक़ाब उल्टी हक़ीक़त ने कि हैराँ कर दिया

किस क़दर मज़बूत निकले तेरे दीवाने के हाथ
शाम-ए-ग़म को जब निचोड़ा सुब्ह-ए-ताबाँ कर दिया

फूल बरसाए हैं क्या क्या तेग़-ए-ख़ूँ-आशाम ने
तुम ने शहर-ए-गुल-अज़ाराँ को गुलिस्ताँ कर दिया

सीना-ए-सनअत में भर कर अपने दिल का इज़्तिराब
आहन-ओ-फ़ौलाद को मैं ने ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दिया