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ज़िंदगी मुझ को मिरी नज़रों में शर्मिंदा न कर | शाही शायरी
zindagi mujhko meri nazron mein sharminda na kar

ग़ज़ल

ज़िंदगी मुझ को मिरी नज़रों में शर्मिंदा न कर

अक़ील शादाब

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ज़िंदगी मुझ को मिरी नज़रों में शर्मिंदा न कर
मर चुका है जो बहुत पहले उसे ज़िंदा न कर

हाल का ये दुख तिरे माज़ी की तुझ को देन है
आज तक जो कुछ किया तू ने वो आइंदा न कर

तो भी इस तूफ़ान में इक रेत की दीवार है
अपनी हस्ती भूल कर हर एक की निंदा न कर

सौ-गुना होते हुए भी जिस ने बाज़ी हार दी
ऐसी बुज़दिल भीड़ का मुझ को नुमाइंदा न कर

जिस्म क्या शय है कि मेरी रूह तक जल जाएगी
आग में अपनी जला कर मुझ को ताबिंदा न कर