ज़िंदगी किस मक़ाम से गुज़री
हसरत-ए-नंग-ओ-नाम से गुज़री
ख़ूब आपस में जाम टकराए
शाम इस एहतिमाम से गुज़री
जाने वो थे कि मेरा हुस्न-ए-ख़याल
इक तजल्ली सी बाम से गुज़री
कोई रह-रौ न कोई रहबर था
जुस्तुजू जिस मक़ाम से गुज़री
वादी-ए-मर्ग से गुज़र कर 'नक़्श'
रूह सोज़-ए-दवाम से गुज़री
ग़ज़ल
ज़िंदगी किस मक़ाम से गुज़री
महेश चंद्र नक़्श

