ज़िंदगी की सख़्त राहों से गुज़र जाने के बा'द
चंद आँखें रो रही हैं मेरे मर जाने के बा'द
बस यही तो सोच के मैं टूट कर बिखरा नहीं
क्यूँ समेटेगा मुझे कोई बिखर जाने के बा'द
महव-ए-हैरत हैं मलक जब उलझी ज़ुल्फ़ें देख कर
ढाएगी अब तू क़यामत बन-सँवर जाने के बा'द
पस्तियाँ तेरा मुक़द्दर बन गई हैं आज-कल
ये सज़ा है मेरी नज़रों से उतर जाने के बा'द
जा रहे हो छोड़ कर 'मज़हर' उसे तो सोच लो
फूल में लौटी है कब ख़ुश्बू बिखर जाने के बा'द
ग़ज़ल
ज़िंदगी की सख़्त राहों से गुज़र जाने के बा'द
मज़हर अब्बास