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ज़िंदगी की राह में इक मोड़ ऐसा आएगा | शाही शायरी
zindagi ki rah mein ek moD aisa aaega

ग़ज़ल

ज़िंदगी की राह में इक मोड़ ऐसा आएगा

ख़्वाजा साजिद

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ज़िंदगी की राह में इक मोड़ ऐसा आएगा
जिस के आगे हर कोई ख़ुद को अकेला पाएगा

कौन कितना ज़ब्त कर सकता है कर्ब-ए-हिज्र को
रेल जब चलने लगेगी फ़ैसला हो जाएगा

आज भी उस रूठने वाले से ये उम्मीद है
मेरी जानिब देख कर इक बार तो मुस्काएगा

इस तरह देगा सज़ा अपनाइयत के जुर्म की
मैं उसे अपना कहूँ वो ग़ैर के गुन गाएगा

अब हमारी आँख में मंज़र न कोई ख़्वाब है
तुझ से इक रिश्ता धनक रंगों की चादर लाएगा

जल चुके मिट भी चुके कब से ग़रीबों के मकाँ
ये धुआँ कब तक हमारे ज़ेहन में लहराएगा

दे तो आए उस को सारे फ़ैसले करने का हक़
दिल लरज़ता है मुक़दमा किस के हक़ में जाएगा