ज़िंदगी खिंच गई मुझ से तिरे अबरू की तरह
अपने ही ख़ून का प्यासा हूँ लब-ए-जू की तरह
वो सितारा जो मिरे नाम से मंसूब हुआ
दीदा-ए-शब में है इक आख़िरी आँसू की तरह
शोला-ए-सोज़-ए-दरूँ सर्द हुआ जाता है
कोई समझाए सबा को कि चले लू की तरह
कोई दीवाना उठे ख़ाक उड़ाने के लिए
आज भी दश्त हैं फैले हुए बाज़ू की तरह
इस भरे शहर में करता हूँ हवा से बातें
पाँव पड़ता है ज़मीं पर मिरा आहू की तरह
शबनमी हाथ बढ़ाऊँ कि खुले दरवाज़ा
बिन खिले फूल के ज़िंदाँ में हूँ ख़ुश्बू की तरह
चाहते हैं जो 'मुज़फ़्फ़र' ग़म-ए-हस्ती से फ़रार
बैठ जाएँ वो गढ़ा खोद के साधू की तरह

ग़ज़ल
ज़िंदगी खिंच गई मुझ से तिरे अबरू की तरह
मुज़फ़्फ़र वारसी