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ज़िंदगी के सराब भी देखूँ | शाही शायरी
zindagi ke sarab bhi dekhun

ग़ज़ल

ज़िंदगी के सराब भी देखूँ

रसा चुग़ताई

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ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
नींद आए तो ख़्वाब भी देखूँ

रात काटूँ किसी ख़राबे में
मुँह अंधेरे गुलाब भी देखूँ

हर्फ़-ए-ताज़ा वरक़ वरक़ लिक्खूँ
सादा दिल की किताब भी देखूँ

डूब जाऊँ किसी समुंदर में
फिर जज़ीरों के ख़्वाब भी देखूँ

ज़िंदगी में हिमाक़तें भी करूँ
उस का फिर सद्द-ए-बाब भी देखूँ

आज दिल की बयाज़ में लिख कर
लफ़्ज़ ख़ाना-ख़राब भी देखूँ

प्यास दिल की बुझाऊँ आँखों से
रक़्स करते हबाब भी देखूँ