EN اردو
ज़िंदगी के साज़ पर जलते हुए नग़्मात हैं | शाही शायरी
zindagi ke saz par jalte hue naghmat hain

ग़ज़ल

ज़िंदगी के साज़ पर जलते हुए नग़्मात हैं

मतीन सरोश

;

ज़िंदगी के साज़ पर जलते हुए नग़्मात हैं
रक़्स-फ़रमा शो'ला-ए-दिल की तरह ज़र्रात हैं

हैं बगूलों की तरह तार-ए-नफ़स बहके हुए
ज़िंदगानी की जुनूँ-पर्वर सभी आयात हैं

नाज़-फ़रमा जिन की ताबानी पे थी अक़्ल-ए-बशर
आज वो ख़ुरशीद-ओ-अंजुम कितने कम-औक़ात हैं

हम कि थे दिलदारी-ए-मौज-ए-हवादिस पर निसार
शोर-ए-तूफ़ाँ से अयादत दिल-नशीं जज़्बात हैं

जिन को रखती थी मोअत्तर तेरी यादों की शमीम
तेग़ की झंकार में गुम वो हसीं दिन-रात हैं

वक़्त की मेहराब में इक शम-ए-नौ रौशन करें
राज़दान-ए-आरज़ू हम वारिस-ए-आफ़ात हैं

कौन ढूँडे गर्मी-ए-रुख़्सार-ए-ख़ूबाँ ऐ 'सरोश'
आतिश-ए-पैकार से शो'ला-फ़गन जज़्बात हैं