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ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे ख़ुशी से भर गया | शाही शायरी
zindagi ke aaKHiri lamhe KHushi se bhar gaya

ग़ज़ल

ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे ख़ुशी से भर गया

कृष्ण मोहन

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ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे ख़ुशी से भर गया
एक दिन इतना हँसा वो हँसते हँसते मर गया

बुझ गया एहसास तारी है सुकूत-ए-बे-हिसी
दर्द का दफ़्तर गया सामान-ए-शोर-ओ-शर गया

शख़्स-ए-मामूली मिरा जो माल-ए-वाफ़िर छोड़ कर
मरते मरते तोहमतें चंद अपने ज़िम्मे धर गया

इस क़दर संजीदा था वो दफ़अतन बूढ़ा हुआ
और फिर इक दोपहर बीवी को बेवा कर गया

दूरदर्शन पर तरब आगीं तमाशा देख कर
ख़ुश हुआ वो इस क़दर मारे ख़ुशी के मर गया

दर हक़ीक़त मौत का मतलब तो है नक़्ल-ए-मकाँ
जिस तरह कमरे के अंदर से कोई बाहर गया

कृष्ण 'मोहन' ये भी है कैसा अकेला-पन कि लोग
मौत से डरते हैं मैं तो ज़िंदगी से डर गया