ज़िंदगी का सफ़र तय तो करते रहे
रात कटती रही दिन गुज़रते रहे
इक तसव्वुर तिरा ज़ेहन में हम लिए
शाह-राह-ए-जहाँ से गुज़रते रहे
अपनी आवारगी का पता है किसे
ज़ख़्म खाते रहे और सँवरते रहे
शाम आई नहा कर तिरे हुस्न में
चाँद तारे फ़लक पर निखरते रहे
अपना मतलूब-ओ-मक़सूद अब कुछ नहीं
ख़्वाब बनते रहे और बिखरते रहे
ग़ज़ल
ज़िंदगी का सफ़र तय तो करते रहे
ख़ान रिज़वान