ज़िंदगी जिस पर हँसे ऐसी कोई ख़्वाहिश न की
घाव सीने में सजाए घर की आराइश न की
नुक्ता-चीनी पर मिरी तुम इतने बरगश्ता न हो
कह दिया जो कुछ भी दिल में था मगर साज़िश न की
एक से हालात आए हैं नज़र हर दौर में
रुक गए मेरे क़दम या वक़्त ने गर्दिश न की
झुक गया क़दमों पे तेरे फिर भी सर ऊँचा रहा
आँख पत्थर हो गई जल्वों की फ़रमाइश न की
लाख नज़रों को उछाला तू न आया बाम पर
साए सर पटख़ा किए दीवार ने जुम्बिश न की
मैं ने जिन आँखों को सीने में उतारा फिर गईं
ख़ुद को अपनाने की इस डर से कभी कोशिश न की
रह के महदूद-ए-वसाइल की 'मुज़फ़्फ़र' ने बसर
पाँव फैला कर कभी चादर की पैमाइश न की
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ग़ज़ल
ज़िंदगी जिस पर हँसे ऐसी कोई ख़्वाहिश न की
मुज़फ़्फ़र वारसी