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ज़िंदगी भर तो सदा जब्र सहे सब्र किए | शाही शायरी
zindagi bhar to sada jabr sahe sabr kiye

ग़ज़ल

ज़िंदगी भर तो सदा जब्र सहे सब्र किए

ख़्वाजा मोहम्मद ज़करिय़ा

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ज़िंदगी भर तो सदा जब्र सहे सब्र किए
मौत के ब'अद मुझे क्या जो मिरी क़ब्र जिए

खोलते लावे के मानिंद उबलता है दिमाग़
जब ये हालत हो तो कब तक कोई होंटों को सिए

जिस्म ज़ख़्मी हो तो सीना भी उसे मुमकिन है
रूह पर ज़ख़्म लगे हों तो उन्हें कौन सिए

राह-रौ राह में कीड़ों की तरह रेंगते रहें
राहबर ऊँची हवाओं में हैं पलकों को सिए

वो अगर चाहें तो तक़दीर बदल सकती है
पर नहीं उन को ग़रज़ कोई मरे कोई जिए

रौशनी दूर बहुत दूर है फिर भी हम से
जगमगाते हैं उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ लाखों दिए

कैसे ज़िंदा हूँ अभी तक नहीं समझा ख़ुद भी
ज़ख़्म खाए हैं बहुत मैं ने बहुत ज़हर पिए