ज़िंदगी अपनी क़रीने से बसर होती नहीं
मुख़्तसर करता हूँ लेकिन मुख़्तसर होती नहीं
दे गया तारीकियाँ इतनी वो अहल-ए-शहर को
सर पे सूरज आ गया फिर भी सहर होती नहीं
पहले अपने साथ चलते थे सितारे शौक़ से
अब तो अपनी रौशनी भी हम-सफ़र होती नहीं
इस तरह चुप-चाप मेरे पास आ जाते हैं लोग
घर के दरवाज़े की चौखट को ख़बर होती नहीं
ग़ज़ल
ज़िंदगी अपनी क़रीने से बसर होती नहीं
अंजुम नियाज़ी