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ज़िंदगानी का ये पहलू कुछ ज़रीफ़ाना भी है | शाही शायरी
zindagani ka ye pahlu kuchh zarifana bhi hai

ग़ज़ल

ज़िंदगानी का ये पहलू कुछ ज़रीफ़ाना भी है

साहिर सियालकोटी

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ज़िंदगानी का ये पहलू कुछ ज़रीफ़ाना भी है
या'नी उस की हर हक़ीक़त एक अफ़्साना भी है

तुम जिसे जैसा बना देते हो बन जाता है वो
फ़ितरतन हर आदमी आक़िल भी दीवाना भी है

रंज ही अक्सर हुआ करता है राहत का निशाँ
जिस जगह तुम दाम देखोगे वहाँ दाना भी है

वा-ए-क़िस्मत इक हमीं महरूम इस फ़न से रहे
अपने मतलब के लिए हुश्यार दीवाना भी है

वक़अ'त-ए-मैख़ाना भी अपनी जगह कुछ कम नहीं
क़ाबिल-ए-ताज़ीम गो का'बा भी बुत-ख़ाना भी है

दिल की फ़ितरत इश्क़-ओ-उल्फ़त ही मैं ऐ 'साहिर' खुली
ये वो काफ़िर है कि अपना हो के बेगाना भी है