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जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया | शाही शायरी
zindan-e-kaenat mein mahsur kar diya

ग़ज़ल

जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया

सीमाब अकबराबादी

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जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया
महफ़िल से अपनी तुम ने बहुत दूर कर दिया

आते हो देने दावत-ए-दार-ओ-रसन हमें
जब हम ने तर्क-ए-शेवा-ए-मंसूर कर दिया

फ़ितरत यही अज़ल से है बर्क़-ए-जमाल की
उस ने जिसे तबाह किया तूर कर दिया

तुम ने हमारे ज़र्फ़-ए-नज़र पर न की निगाह
सारे जहाँ को हुस्न से मामूर कर दिया

'सीमाब' कोई मर्तबा मंसूर का न था
लफ़्ज़-ए-ख़ुदी की शरह न मशहूर कर दिया