जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया
महफ़िल से अपनी तुम ने बहुत दूर कर दिया
आते हो देने दावत-ए-दार-ओ-रसन हमें
जब हम ने तर्क-ए-शेवा-ए-मंसूर कर दिया
फ़ितरत यही अज़ल से है बर्क़-ए-जमाल की
उस ने जिसे तबाह किया तूर कर दिया
तुम ने हमारे ज़र्फ़-ए-नज़र पर न की निगाह
सारे जहाँ को हुस्न से मामूर कर दिया
'सीमाब' कोई मर्तबा मंसूर का न था
लफ़्ज़-ए-ख़ुदी की शरह न मशहूर कर दिया
ग़ज़ल
जिंदान-ए-काएनात में महसूर कर दिया
सीमाब अकबराबादी