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ज़िंदा रहने की तलब इस लिए प्यारी न रही | शाही शायरी
zinda rahne ki talab is liye pyari na rahi

ग़ज़ल

ज़िंदा रहने की तलब इस लिए प्यारी न रही

नदीम सिरसीवी

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ज़िंदा रहने की तलब इस लिए प्यारी न रही
कोई वक़अत दिल-ए-क़ातिल में हमारी न रही

मय-कशी छोड़ दी इस वास्ते हम ने साक़ी
पहले जैसी तिरी आँखों में ख़ुमारी न रही

नींद का ज़हर निगाहों में समाया जब से
रतजगों से मिरी बा-ज़ाब्ता यारी न रही

आख़िरश आ ही गया कुश्ता-ए-हसरत को क़रार
उम्र-भर लज़्ज़त-ए-आवारगी तारी न रही

सीखता किस तरह आईन-ए-जुनूँ के आदाब
मुझ पे माइल ब-करम दीद तुम्हारी न रही

शिद्दत-ए-ज़ब्त से पथरा गईं आँखें भी 'नदीम'
ग़म रहा साथ में पर गिर्या-ओ-ज़ारी न रही