ज़िंदा रहे तो हम को न पहचान दी गई
मरने के बा'द ख़ूब पज़ीराई की गई
क्या क्या सितम हुए हैं मेरे साथ बारहा
धोके से कितनी बार मिरी जान ली गई
सीने से मेरे नोच ली तस्वीर-ए-यार भी
शिरयान-ए-ज़िंदगी ही मिरी काट दी गई
तन्हाइयों में मैं तेरी यादों के साथ था
महफ़िल सजी तो यादों से वाबस्तगी गई
इस ला-दवा मरज़ का असर पूछते हो क्या
दिल ने दिया न साथ तो तन्हाई भी गई
दरिया मसर्रतों का तो अब सूख ही गया
ख़ून-ए-जिगर पिया तो मिरी तिश्नगी गई
देता जवाब क्या मैं तकल्लुम का यार के
उस की निगाह-ए-नाज़ मिरे होंट सी गई
अर्बाब-ए-इल्म-ओ-फ़न की तवज्जोह हुई तो 'शाद'
महफ़िल में तेरे फ़न को भी पहचान दी गई
ग़ज़ल
ज़िंदा रहे तो हम को न पहचान दी गई
शमशाद शाद