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ज़िंदा हूँ यूँ कि बस में मिरी ख़ुद-कुशी नहीं | शाही शायरी
zinda hun yun ki bas mein meri KHud-kushi nahin

ग़ज़ल

ज़िंदा हूँ यूँ कि बस में मिरी ख़ुद-कुशी नहीं

शौकत थानवी

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ज़िंदा हूँ यूँ कि बस में मिरी ख़ुद-कुशी नहीं
आख़िर ये और क्या है अगर बेबसी नहीं

वो दिल दिया नसीब ने जिस में ख़ुशी नहीं
इक चीज़ तो मिली है मगर काम की नहीं

हाँ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे जानता हूँ मैं
तू सुब्ह तक रही तो मिरी ज़िंदगी नहीं

हरगिज़ फ़रेब-ए-रंग-ए-मसर्रत न खाइए
ये ग़म का नाम है ये हक़ीक़ी ख़ुशी नहीं

दुनिया की ज़ीनतों में नहीं कोई भी कमी
लेकिन मिरी नज़र में वो दिल-बस्तगी नहीं

अरमान भी वहीं हैं तमन्ना भी है वही
जिस दिल से थी ये गर्मी-ए-महफ़िल वही नहीं

हँसने में भी निहाँ हैं यहाँ नाला-हा-ए-दर्द
पामाल रस्म-ए-इज्ज़ मिरी बंदगी नहीं

उम्मीद है जवाब-ए-ग़म-ए-आरज़ू मगर
वो क्या करे जिसे कोई उम्मीद ही नहीं

वा'दे ने तेरे सारे इरादे बदल दिए
हालाँकि दर्द-ए-दिल में ज़रा भी कमी नहीं

मैं हूँ कि मुझ से सारा ज़माना ख़िलाफ़ है
हालाँकि जुर्म-ए-इश्क़ से कोई बरी नहीं

इबरत-फ़ज़ा है अहल-ए-ज़माना के वास्ते
'शौकत' वो दास्ताँ जो किसी ने सुनी नहीं