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ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का | शाही शायरी
zikr hota hai jahan bhi mere afsane ka

ग़ज़ल

ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का

गुलज़ार

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ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का
एक दरवाज़ा सा खुलता है कुतुब-ख़ाने का

एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे
दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का

बुलबुला फिर से चला पानी में ग़ोते खाने
न समझने का उसे वक़्त न समझाने का

मैं ने अल्फ़ाज़ तो बीजों की तरह छाँट दिए
ऐसा मीठा तिरा अंदाज़ था फ़रमाने का

किस को रोके कोई रस्ते में कहाँ बात करे
न तो आने की ख़बर है न पता जाने का