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ज़ीस्त की राह में जितने मुझे गुलज़ार मिले | शाही शायरी
zist ki rah mein jitne mujhe gulzar mile

ग़ज़ल

ज़ीस्त की राह में जितने मुझे गुलज़ार मिले

मजीद मैमन

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ज़ीस्त की राह में जितने मुझे गुलज़ार मिले
उन में देखा तो फ़क़त धूल मिली ख़ार मिले

बस उसी वक़्त से अहल-ए-जुनूँ कहलाए गए
उस हसीं बुत से जो अहल-ए-ख़िरद इक बार मिले

ऐ मसीहा तुझे इक बार फिर आना होगा
तेरी दुनिया में मुझे सैंकड़ों बीमार मिले

शैख़ साहब ही कहीं मुझ को नहीं आए नज़र
वर्ना हर तरह के जन्नत में गुनहगार मिले

साथ अहबाब निभाते हैं इसी तरह 'मजीद'
दम निकलने को है आँखें खुलीं अग़्यार मिले