EN اردو
ज़ीस्त की हर रहगुज़र पर हश्र बरपा चाहिए | शाही शायरी
zist ki har rahguzar par hashr barpa chahiye

ग़ज़ल

ज़ीस्त की हर रहगुज़र पर हश्र बरपा चाहिए

मख़मूर जालंधरी

;

ज़ीस्त की हर रहगुज़र पर हश्र बरपा चाहिए
दिल में हंगामा निगाहों में तमाशा चाहिए

आँसुओं में भी तिरा जल्वा हुवैदा चाहिए
ग़म के तूफ़ानों में सिर्फ़ इतना सहारा चाहिए

शाम-ए-ग़म दी है तो इक ताबाँ तसव्वुर दे मुझे
मैं अंधेरा क्या करूँ मुझ को उजाला चाहिए

मेरी हस्ती से बरसने लग गई हैं बिजलियाँ
अब तिरे जल्वों के पर्दे पर भी पर्दा चाहिए

बे-नियाज़ी आज से करते हैं हम भी इख़्तियार
उन के हरबे को उन्हीं पर आज़माना चाहिए

साथ साथ इस को लिए फिरती है क्यूँ तेरी तलाश
दश्त की तन्हाई में दीवाना तन्हा चाहिए

दिल पर इस तरतीब से हो बारिश-ए-लुत्फ़-ओ-करम
सरख़ुशी का नक़्श गहरा ग़म का हल्क़ा चाहिए

जज़्ब हो कर रह गई हैं आशियाँ में बिजलियाँ
अब फ़लक को उस के ही शो'लों से फूँका चाहिए

मस्त हो सकता है तू 'मख़मूर' लेकिन इस तरह
आँख में साग़र लब-ए-रंगीं में सहबा चाहिए