ज़ीस्त की गर्मी-ए-बेदार भी लाया सूरज
खुल गई आँख मिरी सर पे जो आया सूरज
फिर शुआ'ओं ने मिरे जिस्म पे दस्तक दी है
फिर जगाने मिरे एहसास को आया सूरज
किसी दुल्हन के झमकते हुए झूमर की तरह
रात ने सुब्ह के माथे पर सजाया सूरज
शाम को रूठ गया था मुझे तड़पाने को
सुब्ह-दम आप मुझे ढूँडने आया सूरज
कम न था उस का ये एहसान कि जाते जाते
कर गया और भी लम्बा मिरा साया सूरज
डालते उस पे कमंदें वो कोई चाँद न था
सौ जतन सब ने किए हाथ न आया सूरज
ख़ूब वाक़िफ़ था वो इंसान के अंधे-पन से
जिस ने भी दिन के उजाले में जलाया सूरज
लोग कहते रहे सूरज को दिखाएँगे चराग़
और ही रंग था जब सामने आया सूरज
शब को भी रूह के आँगन में रही धूप 'क़तील'
चाँद तारों ने भी आ कर न बुझाया सूरज
ग़ज़ल
ज़ीस्त की गर्मी-ए-बेदार भी लाया सूरज
क़तील शिफ़ाई