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ज़ीस्त के आसार रुख़्सत हैं मोहब्बत दिल में है | शाही शायरी
zist ke aasar ruKHsat hain mohabbat dil mein hai

ग़ज़ल

ज़ीस्त के आसार रुख़्सत हैं मोहब्बत दिल में है

मानी जायसी

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ज़ीस्त के आसार रुख़्सत हैं मोहब्बत दिल में है
कारवाँ जाता है मीर-ए-कारवाँ मंज़िल में है

आओ दम सीने में बाक़ी है न हसरत दिल में है
अब तो जो कुछ है वो चश्म-ए-मुंतज़र के तिल में है

हाँ अज़ल से जो मुक़द्दर है वही होगा मगर
जज़्बा-ए-ताईद-ए-क़ुदरत सई-ए-ला-हासिल में है

जाँ-सिताँ है हुस्न क्या हुस्न-ए-तलब की एहतियाज
वो तो ज़ीनत के लिए ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है

जिस की मंज़िल है बक़ा वो जादा-पैमा-ए-फ़ना
दिल इधर नाक़िस में शामिल है उधर कामिल में है

ताब-ए-ख़ल्वत कौन ला सकता है दिल तो मिट चुका
किस क़दर क़ातिल तिरा जल्वा भरी महफ़िल में है

तू जिसे चाहे हक़ीक़त कह जिसे चाहे मजाज़
एक सूरत जो नज़र में है वही तो दिल में है

इल्तिजा नाज़-आफ़रीनी के लिए है वर्ना सुन
आरज़ू ख़ुद उस की शाहिद है कि जल्वा दिल में है

ये मता-ए-ज़ीस्त भी होती है 'मानी' नज़्र-ए-मौत
इक नज़र आँखों में है और एक हसरत दिल में है