ज़ीस्त का ख़ाली कटोरा आप ही भर जाएगा
अपने ही जैसा किसी दिन वो मुझे कर जाएगा
शहर में कोई न रह पाएगा बेनाम-ओ-निशाँ
जिस तरफ़ शीशे की यूरिश होगी पत्थर जाएगा
नद्दियाँ अब भागती फिरती हैं सहरा की तरफ़
अब तो दरिया के तआक़ुब में समुंदर जाएगा
खो चुके हैं लोग अपने अपने चेहरों का वक़ार
जो भी जाएगा तिरा हम-शक्ल बन कर जाएगा
वो उतरवा लेगा होंटों से लिबास-ए-ख़ामुशी
वो यहाँ कोई न कोई गुल खिला कर जाएगा
मैं हूँ अपने दौर के इक साहब-ए-फ़न का कमाल
आने वाला मुझ पे दो आँसू बहा कर जाएगा
जितनी दूरी से सदा देते हैं मुझ को वो 'अयाज़'
उस बुलंदी पर कहाँ मेरा मुक़द्दर जाएगा

ग़ज़ल
ज़ीस्त का ख़ाली कटोरा आप ही भर जाएगा
ग़ुलाम हुसैन अयाज़