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ज़ीस्त है इक मासियत सोज़-ए-दिली तेरे बग़ैर | शाही शायरी
zist hai ek masiyat soz-e-dili tere baghair

ग़ज़ल

ज़ीस्त है इक मासियत सोज़-ए-दिली तेरे बग़ैर

आनंद नारायण मुल्ला

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ज़ीस्त है इक मासियत सोज़-ए-दिली तेरे बग़ैर
हाँ मोहब्बत भी है इक आलूदगी तेरे बग़ैर

शाम-ए-ग़म तेरे तसव्वुर ही से आँखों में चराग़
वर्ना मेरे घर में हो और रौशनी तेरे बग़ैर

ये जहाँ तन्हा भला क्या मुझ को दे पाता शिकस्त
मैं ने कब खाया फ़रेब-ए-दोस्ती तेरे बग़ैर

रात के सीना में है इक ज़ख़्म जिस का नाम चाँद
इक सुनहरी जू-ए-ख़ूँ है चाँदनी तेरे बग़ैर

हर-नफ़स है पै-ब-पै नाकामियों का सामना
ज़ीस्त है इक मुस्तक़िल शर्मिंदगी तेरे बग़ैर

दे गई धोका मगर शाइस्तगी-ए-ग़म मिरी
आ रहा है दिल पे इल्ज़ाम-ए-ख़ुशी तेरे बग़ैर

इल्म-ओ-अक़्ल-ओ-नाम-ओ-जाह-ओ-ज़ोर-ओ-ज़र सब हेच इश्क़
हो के सब कुछ भी नहीं कुछ आदमी तेरे बग़ैर

दिल की शादाबी की ज़ामिन है तू ही ऐ याद-ए-दोस्त
आ न पाई ग़म के फूलों में नमी तेरे बग़ैर

एक इक लम्हे में जब सदियों की सदियाँ कट गईं
ऐसी कुछ रातें भी गुज़री हैं मिरी तेरे बग़ैर

ज़िंदगी 'मुल्ला' की है महजूब नाम-ए-ज़िंदगी
रह गई है शाइ'री ही शाइ'री तेरे बग़ैर