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ज़ेर-ए-लब रहा नाला दर्द की दवा हो कर | शाही शायरी
zer-e-lab raha nala dard ki dawa ho kar

ग़ज़ल

ज़ेर-ए-लब रहा नाला दर्द की दवा हो कर

ताबिश देहलवी

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ज़ेर-ए-लब रहा नाला दर्द की दवा हो कर
आह ने सुकूँ बख़्शा आह-ए-ना-रसा हो कर

कर दिया तअ'य्युन से ज़ौक़-ए-इज्ज़ को आज़ाद
नक़्श-ए-सज्दा ने मेरे तेरा नक़्श-ए-पा हो कर

फ़र्त-ए-ग़म से बेहिस हूँ ग़म है ग़म न होने का
दर्द कर दिया पैदा दर्द ने दवा हो कर

हो चुके हैं सिल बाज़ू है न हिम्मत-ए-परवाज़
हम रिहा न हो पाए क़ैद से रहा हो कर

हसरतें निकलती हैं मेरी जान जाती है
दम लबों पे आता है हर्फ़-ए-मुद्दआ' हो कर

ग़म पे ग़म मुझे दे कर ग़म से कर दिया महरूम
क्या मिला ज़माने को सब्र-आज़मा हो कर

रंज-ए-ऐश है बाक़ी अब न ऐश-ग़म 'ताबिश'
कुछ ख़बर नहीं मुझ को रह गया हूँ क्या हो कर