EN اردو
ज़ेहन के कैनवस को फैला कर | शाही शायरी
zehn ke canwas ko phaila kar

ग़ज़ल

ज़ेहन के कैनवस को फैला कर

उमर फ़रहत

;

ज़ेहन के कैनवस को फैला कर
तू हर इक मसअले पे सोचा कर

मेरे काँधे पे आज उदासी फिर
सो गई अपने बाल बिखरा कर

यूँ बिछड़ना तो कोई बात नहीं
ख़ूब रोया था वो भी घर जा कर

मेरी जलती उदास आँखों पर
कभी चुपके से होंट रक्खा कर

आगे इक बाग़ का जज़ीरा है
फूल तोड़ेंगे नाव ठहरा कर

अपने हालात से निबट न सका
ख़ुद-कुशी कर गया वो घबरा कर

सब अक़ीदे ही बे-असास हुए
आगही और शुऊ'र को पा कर