ज़ौक़-ए-सुजूद ले गया मुझ को कहाँ कहाँ
लेकिन मिरे नसीब में वो आस्ताँ कहाँ
बख़्शा है तेरे नक़्श-ए-क़दम ने जो ख़ाक-ए-कू
वो हुस्न-ए-दिल-नवाज़ सर-ए-कहकशाँ कहाँ
मैं सोचता हूँ आरिज़-ओ-गेसू को देख कर
ठहरेगा सुब्ह-ओ-शाम का ये कारवाँ कहाँ
ख़ुद से भी हो सकी न मुलाक़ात उम्र-भर
अपनी तलाश ले गई मुझ को कहाँ कहाँ
ईजाद कर रहे हैं वो जौर-ओ-सितम नए
जौर-ओ-सितम से दबता है अज़्म-ए-जवाँ कहाँ
मेरी निगाह-ए-शौक़ गदागर बनी हुई
जल्वों की भीक माँग रही है कहाँ कहाँ
है बाज़ यूँ तो अब भी दर-ए-मय-कदा 'नदीम'
पहली सी वो नवाज़िश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कहाँ

ग़ज़ल
ज़ौक़-ए-सुजूद ले गया मुझ को कहाँ कहाँ
राज कुमार सूरी नदीम