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ज़ौक़-ए-सुजूद ले गया मुझ को कहाँ कहाँ | शाही शायरी
zauq-e-sujud le gaya mujhko kahan kahan

ग़ज़ल

ज़ौक़-ए-सुजूद ले गया मुझ को कहाँ कहाँ

राज कुमार सूरी नदीम

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ज़ौक़-ए-सुजूद ले गया मुझ को कहाँ कहाँ
लेकिन मिरे नसीब में वो आस्ताँ कहाँ

बख़्शा है तेरे नक़्श-ए-क़दम ने जो ख़ाक-ए-कू
वो हुस्न-ए-दिल-नवाज़ सर-ए-कहकशाँ कहाँ

मैं सोचता हूँ आरिज़-ओ-गेसू को देख कर
ठहरेगा सुब्ह-ओ-शाम का ये कारवाँ कहाँ

ख़ुद से भी हो सकी न मुलाक़ात उम्र-भर
अपनी तलाश ले गई मुझ को कहाँ कहाँ

ईजाद कर रहे हैं वो जौर-ओ-सितम नए
जौर-ओ-सितम से दबता है अज़्म-ए-जवाँ कहाँ

मेरी निगाह-ए-शौक़ गदागर बनी हुई
जल्वों की भीक माँग रही है कहाँ कहाँ

है बाज़ यूँ तो अब भी दर-ए-मय-कदा 'नदीम'
पहली सी वो नवाज़िश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कहाँ