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ज़ौक़-ए-परवाज़ में साबित हुआ सय्यारों से | शाही शायरी
zauq-e-parwaz mein sabit hua sayyaron se

ग़ज़ल

ज़ौक़-ए-परवाज़ में साबित हुआ सय्यारों से

फ़रीद इशरती

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ज़ौक़-ए-परवाज़ में साबित हुआ सय्यारों से
आसमाँ ज़ेर-ए-ज़मीं है मिरी यल्ग़ारों से

कैसे क़ातिल हैं जिन्हें पास-ए-वफ़ा है न जफ़ा
क़त्ल करते हैं तो अग़्यार की तलवारों से

रह के साहिल पे हो किस तरह किसी को मालूम
कश्तियाँ कैसे निकल आती हैं मंजधारों से

गुल हुए जाते हैं जलते हुए देरीना चराग़
आईना-ख़ानों की गिरती हुई दीवारों से

हम मोहब्बत को बस इतना ही समझते हैं 'फ़रीद'
जू-ए-शीर आई है बहती हुई कोहसारों से