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ज़ौक़-ए-दीदार-ए-तमाशा-बार रुस्वाई हुआ | शाही शायरी
zauq-e-didar-e-tamasha-bar ruswai hua

ग़ज़ल

ज़ौक़-ए-दीदार-ए-तमाशा-बार रुस्वाई हुआ

इक़बाल हैदरी

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ज़ौक़-ए-दीदार-ए-तमाशा-बार रुस्वाई हुआ
ख़ुद तमाशा बन गया जो भी तमाशाई हुआ

क़र्या क़र्या ढूँढती है रूह-ए-लैला क़ैस को
नज्द के सहरा में फिर ऐसा न सौदाई हुआ

जिस लहू से दिल में रौशन दर्द की मशअ'ल रही
वो लहू इक बेवफ़ा के रुख़ की ज़ेबाई हुआ

जान कर हम क्या करेंगे छोड़ इस क़िस्से को अब
कौन सच्चा इश्क़ में था कौन हरजाई हुआ

ख़ुद-सरी में अपने साए से जो लिपटे रह गए
उन ग़ज़ालों का मुक़द्दर दश्त-ए-तन्हाई हुआ

रौशनी की इक किरन भी अब तो क़िस्मत में नहीं
छिन गईं आँखें तो फिर एहसास-ए-बीनाई हुआ

जो ज़बाँ पर ला न सकते थे अयाँ सब पर हुआ
फ़न हमारा बाइस-ए-तज़हीक-ओ-रुसवाई हुआ

है जुनूँ के फ़ैज़ से ये जुम्बिश-ए-पा वर्ना कब
ख़ार-ज़ारों से इलाज-ए-आबला-पाई हुआ

क्या तवक़्क़ो अब रखें 'इक़बाल' इस दुनिया से हम
हर क़दम पर भाई का दुश्मन जहाँ भाई हुआ