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ज़ौ-बार इसी सम्त हुए शम्स-ओ-क़मर भी | शाही शायरी
zau-bar isi samt hue shams-o-qamar bhi

ग़ज़ल

ज़ौ-बार इसी सम्त हुए शम्स-ओ-क़मर भी

ब्रहमा नन्द जलीस

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ज़ौ-बार इसी सम्त हुए शम्स-ओ-क़मर भी
उस शोख़ ने फेरा रुख़-ए-पुर-नूर जिधर भी

मिटती है कहीं दिल से शब-ए-ग़म की सियाही
होती है कहीं हिज्र के मारों की सहर भी

हैं दोनों जहाँ एक ही तनवीर के परतव
है एक ही जल्वा जो इधर भी है उधर भी

निकली थी तिरे जल्वा-ए-रंगीं की ख़बर को
गुम हो के वहीं रह गई कम्बख़्त नज़र भी

होती ही नहीं सुब्ह निखरता ही नहीं नूर
है डूबी हुई शब की सियाही में सहर भी

कुछ उन की हसीं याद की शमएँ थीं फ़रोज़ाँ
कुछ नूर-फ़िशाँ दिल में रहा दाग़-ए-जिगर भी

समझें न 'जलीस' आप हमें हेच कि हम में
हैं ऐब हज़ारों तो हज़ारों हैं हुनर भी