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ज़रूरी कब है कि हर काम इख़्तियारी करें | शाही शायरी
zaruri kab hai ki har kaam iKHtiyari karen

ग़ज़ल

ज़रूरी कब है कि हर काम इख़्तियारी करें

सुहैल अख़्तर

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ज़रूरी कब है कि हर काम इख़्तियारी करें
अब अपने-आप को इतना न ख़ुद पे तारी करें

ये इंजिमाद भी टूटेगा देखना इक दिन
हम ए'तिमाद से पहले तो ख़ुद को जारी करें

कोई भी खेल हो हैरान अब नहीं करता
न जाने कौन से कर्तब नए मदारी करें

बुलावा अर्श से आता है गर तो आता रहे
जो ख़ाक-ज़ादे ही ठहरे तो ख़ाकसारी करें

है तिश्नगी से तख़य्युल में ताक़त-ए-परवाज़
हुज़ूर मुझ को न सैराबियों से भारी करें

कसीफ़ हम हैं सरासर मगर लतीफ़ है वो
तो उस के वास्ते क्या ख़ुद को ख़ुद से आरी करें

लगाम खींच के बैठे हैं बे-नियाज़ से हम
समंद-ए-शौक़ की अब चाहे जो सवारी करें

अता किया गया सहरा इस एक शर्त के साथ
'सुहैल' हम न कभी वहशतों से यारी करें