ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए
छोटी सी कोई बात हो लड़ जाना चाहिए
ख़्वाबों की एक नाव समुंदर में डाल के
तूफ़ाँ की मौज मौज से टकराना चाहिए
हर बात में जो ज़हर के नश्तर लगाए हैं
ऐसे ही दिल-जलों से तो याराना चाहिए
क्या ज़िंदगी से बढ़ के जहन्नम नहीं कोई
ये सच है फिर तो आग में जल जाना चाहिए
दुनिया वो शाहराह है बचना मुहाल है
पगडंडियों को ढूँढ के अपनाना चाहिए
नज़्में वो हों कि चीख़ पड़ें सारे अहल-ए-फ़न
नींदें उड़ा दे सब की वो अफ़्साना चाहिए
बहरों को तोड़ तोड़ के नाले में डाल दो
बस दिल की लय में फ़िक्र को ढल जाना चाहिए
ये कहकशाँ भी टूट के हो मिस्रओं में जज़्ब
ज़ेहन-ए-रसा को इतना तो उलझाना चाहिए
हम 'यूलिसीस' बन के बहुत जी चुके मगर
यारो 'हुसैन' बन के भी मर जाना चाहिए
ग़ज़ल
ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए
बाक़र मेहदी