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ज़र्रा ज़र्रा पिघलने वाला था | शाही शायरी
zarra zarra pighalne wala tha

ग़ज़ल

ज़र्रा ज़र्रा पिघलने वाला था

बलबीर राठी

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ज़र्रा ज़र्रा पिघलने वाला था
सारा मंज़र बदलने वाला था

सब्र हम से न हो सका वर्ना
अपनी ज़िद से वो टलने वाला था

ज़ब्त करते तो एक इक ज़र्रा
राज़ अपना उगलने वाला था

तुम अँधेरों से डर गए यूँ ही
वर्ना सूरज निकलने वाला था

तुम ने अच्छा किया जो थाम लिया
वर्ना मैं कब सँभलने वाला था

जो रहा इक हरीफ़ की मानिंद
वो मिरे साथ चलने वाला था

ज़ेहन में वो जो अक्स था कब से
लाख शक्लों में ढलने वाला था