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ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल | शाही शायरी
zarra harif-e-mehr daraKHshan hai aaj kal

ग़ज़ल

ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल

वासिफ़ देहलवी

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ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
क़तरे के दिल में शोरिश-ए-तूफ़ाँ है आज कल

सद-जल्वा बे-हिजाब ख़िरामाँ है आज कल
सहमा हुआ सा गुम्बद गर्दां है आज कल

आँसू में अक्स-ए-नक़्शा-ए-दौराँ है आज कल
सिमटा हुआ सा आलम-ए-इम्काँ है आज कल

बरहम मिज़ाज-ए-फ़ितरत-ए-इंसाँ है आज कल
किस मख़मसे में ग़ैरत-ए-यज़्दाँ है आज कल

क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
सुब्ह-ए-वतन भी शाम-ए-ग़रीबाँ है आज कल

शीराज़ा-ए-उम्मीद शिकस्ता है इन दिनों
जमइयत-ए-ख़याल परेशाँ है आज कल

है इक निगाह-ए-मेहर की 'वासिफ़' को आरज़ू
'वासिफ़' का दिल शिकस्ता ओ वीराँ है आज कल