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ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता | शाही शायरी
zarf se baDh ke ho itna nahin manga jata

ग़ज़ल

ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता

अब्बास दाना

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ज़र्फ़ से बढ़ के हो इतना नहीं माँगा जाता
प्यास लगती है तो दरिया नहीं माँगा जाता

चाँद जैसी भी हो बेटी किसी मुफ़्लिसी की तो
ऊँचे घर वालों से रिश्ता नहीं माँगा जाता

दोस्ती कर के हवा से जो जला दें घर को
उन चराग़ों से उजाला नहीं माँगा जाता

अपने कमज़ोर बुज़ुर्गों का सहारा मत लो
सूखे पेड़ों से तो साया नहीं माँगा जाता

पेट भरते हैं जो माँगे हुए टुकड़े खा कर
उन के हाथों से निवाला नहीं माँगा जाता

भीक भी माँगो तो तहज़ीब का कासा ले कर
हाथ फैला के ख़ज़ाना नहीं माँगा जाता

है इबादत के लिए शर्त अक़ीदत 'दाना'
बंदगी के लिए सज्दा नहीं माँगा जाता