ज़र्द पत्तों को हवा साथ लिए फिरती है
दम-गुज़ीदा हैं क़ज़ा साथ लिए फिरती है
राख हो जाए न फ़ाक़ों के जहन्नम में हयात
बे-कसी अपनी चिता साथ लिए फिरती है
माँ के होंटों से थी निकली दम-ए-रुख़्सत जो दुआ
मुझ को अब तक वो दुआ साथ लिए फिरती है
आस की राख में ढूँडें नई उम्मीद कोई
ज़िंदगी बीम-ओ-रजा साथ लिए फिरती है
सच का है क़हत यहाँ झूट का बाज़ार है गर्म
अब हमें मौज-ए-फ़ना साथ लिए फिरती है
एक पत्थर है बहुत झील के सन्नाटे को
ख़ामुशी कोह-ए-निदा साथ लिए फिरती है
अपने साए से गुरेज़ाँ नहीं इक तू ही 'रबाब'
शहर भर को ये वबा साथ लिए फिरती है
ग़ज़ल
ज़र्द पत्तों को हवा साथ लिए फिरती है
ज़फ़र रबाब