ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था 
और इस के बाद फ़क़त आँधियों को आना था 
मैं घर को फूँक रहा था बड़े यक़ीन के साथ 
कि तेरी राह में पहला क़दम उठाना था 
वगरना कौन उठाता ये जिस्म ओ जाँ के अज़ाब 
ये ज़िंदगी तो मोहब्बत का इक बहाना था 
ये कौन शख़्स मुझे किर्चियों में बाँट गया 
ये आइना तो मिरा आख़िरी ठिकाना था 
पहाड़ भाँप रहा था मिरे इरादे को 
वो इस लिए भी कि तेशा मुझे उठाना था 
बहुत सँभाल के लाया हूँ इक सितारे तक 
ज़मीन पर जो मिरे इश्क़ का ज़माना था 
मिला तो ऐसे कि सदियों की आश्नाई हो! 
तआरुफ़ उस से भी हालाँकि ग़ाएबाना था 
मैं अपनी ख़ाक में रखता हूँ जिस को सदियों से 
ये रौशनी भी कभी मेरा आस्ताना था 
मैं हाथ हाथों में उस के न दे सका था 'शुमार' 
वो जिस की मुट्ठी में लम्हा बड़ा सुहाना था
        ग़ज़ल
ज़रा सी देर थी बस इक दिया जलाना था
अख्तर शुमार

