ज़रा सी बात से मंज़र बदल भी सकता था
जो हादिसा हुआ बस्ती में टल भी सकता था
गिला न कर मिरी रफ़्तार का ये बोझ भी देख
मैं सब के साथ हूँ आगे निकल भी सकता था
हवाएँ उस के मिरे दरमियान रहती थीं
क़रीब होते हुए दश्त जल भी सकता था
चलें वो आँधियाँ रिश्ता ज़मीं से टूट गया
घना दरख़्त अभी फूल-फल भी सकता था
बस एक पल ने मुझे क़ैद कर लिया 'अंजुम'
मैं जब गिरफ़्त से उस की निकल भी सकता था

ग़ज़ल
ज़रा सी बात से मंज़र बदल भी सकता था
इक़बाल अंजुम