ज़रा सा वक़्त कहीं बे-सबब गुज़ारते हैं
चलो ये शाम सर-ए-जू-ए-लब गुज़ारते हैं
तू इक चराग़-ए-जहान-ए-दिगर है क्या जाने
हम इस ज़मीन पे किस तरह शब गुज़ारते हैं
हमारा इश्क़ ही क्या है गुज़ारने वाले
यहाँ तो नज़्र में नाम ओ नसब गुज़ारते हैं
ख़िराज माँग रही है वो शाह-बानू-ए-शहर
सो हम भी हदिया-ए-दस्त-ए-तलब गुज़ारते हैं
सुना तो होगा कि जंगल में मोर नाचता है
हम इस ख़राबे में फ़स्ल-ए-तरब गुज़ारते हैं
ग़ज़ल
ज़रा सा वक़्त कहीं बे-सबब गुज़ारते हैं
इरफ़ान सिद्दीक़ी