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ज़रा कीजिए ग़ौर हज़रत-सलामत | शाही शायरी
zara kijiye ghaur hazrat-salamat

ग़ज़ल

ज़रा कीजिए ग़ौर हज़रत-सलामत

नैन सुख

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ज़रा कीजिए ग़ौर हज़रत-सलामत
ये क्या सीखा है तौर हज़रत-सलामत

मुनासिब नहीं हम ग़रीबों के ऊपर
करो इस क़दर जौर हज़रत-सलामत

तुम्हें छोड़ कर अब कहें दर्द किस से
है कोई दूसरा और हज़रत-सलामत

नहीं जानते तुम सिवा हम किसी को
हमारे हो सरमौर हज़रत-सलामत

हर इक दाने में दिल पड़े देखता हूँ
ज़हे पहुँचे बिल्लोर हज़रत-सलामत

इसी आस्ताने बग़ैर हम को जग में
नहीं है कहीं ठौर हज़रत-सलामत

लगाई है संदल की तुम ने जबीं पर
क़यामत है ये घोर हज़रत-सलामत

नहीं बोलते हम से सो क्या सबब है
ये कह दीजे फ़िल-फ़ौर हज़रत-सलामत

नजीबों से क्यूँ कर ख़ुशी हो तुम्हारी
कमीनों का है दौर हज़रत-सलामत

बस अब कीजिए मुआ'फ़ देखें तमाशा
निकलती है गनगोर हज़रत-सलामत