ज़रा भी शोर मौजों का नहीं है
सफ़ीना तो कोई डूबा नहीं है
तुम्हारा हुस्न क्या है क्या नहीं है
तुम्हें ख़ुद इस का अंदाज़ा नहीं है
तिरी महफ़िल का किस से हाल पूछें
वहाँ जा कर कोई पल्टा नहीं है
ये मय-ख़ाना है इक जा-ए-मुक़द्दस
चले आओ यहाँ धोका नहीं है
वो इस पर हो गए हैं और बरहम
कि 'राही' को कोई शिकवा नहीं है
ग़ज़ल
ज़रा भी शोर मौजों का नहीं है
दिवाकर राही